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सरस्वती लक्ष्मी दोनों ने दिया, तुम्हें सादर जय-पत्र।
साक्षी है हरीसिंह ! तुम्हारा ज्ञान दान का अक्षय-सत्र ।।......
मूल रूप से डाक्टर हरिसिंह गौर के परिवार के लोग उत्तरप्रदेश में अवध जिले के निवासी थे जो सागर में आकर .......
Learn Moreडॉ. हरीसिंह गौर का बाल जीवन गरीबी और अभावों में बीता। उनके प्रारंभिक जीवन के साथी गरीबी और अभाव थे....
Learn Moreज्ञान का पिपासु, ज्ञान की खोज में, सागर से सात समुद्र पार कर इंग्लैण्ड में विद्या अध्ययन के लिये पहुंच गया....
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Learn Moreविद्यार्थी जीवन समाप्त करने के बाद भी उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार नहीं हो पाया था। उनके पास स्वदेश....
Learn Moreरीसिंह गौर अप्रैल 1889 में इंग्लैंड गए। समुद्र यात्रा से उत्साहित थे लेकिन लौटने पर धन की कमी ने निराशा....
Learn More26 जनवरी 1893 का दिन डॉ. हरीसिंह गौर के जीवन का महत्वपूर्ण मोड़ था, जब उन्होंने सरकारी सेवा....
Learn Moreहरीसिंह गौर का पहला महत्वपूर्ण ग्रंथ "ला आफ ट्रान्सफर" प्रकाशित हुआ। इस ग्रंथ को उच्च स्तरीय मान्यता मिली....
Learn Moreडॉ. हरीसिंह गौर, एक प्रख्यात वकील, लेखक, और समाजसेवी, अपने जीवन में कई कठिनाइयों का सामना करते हुए ....
Learn Moreडॉ. हरीसिंह गौर ने नागपुर शहर को अपने निवास के लिए चुना था और देशभर में एक प्रतिष्ठित वकील के रूप में ....
Learn Moreडॉ. हरीसिंह गौर एक प्रख्यात विधिवेत्ता, राजनीतिज्ञ, साहित्यविद्, शिक्षा-शास्त्री एवं समाज-सुधारक थे। इसीलिए....
Learn Moreदिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) के पहले कुलपति हरि सिंह गौर थे , जो 1922 से 1926 तक इस पद पर रहे....
Learn Moreडॉ. हरीसिंह गौर जब लन्दन में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में थे तभी उन्होंनेलन्दन स्थित कैम्ब्रिज एवं ऑक्सफोर्ड....
डॉ. हरीसिंह गौर का जीवन-दर्शन अत्यधिक व्यावहारिक और प्रेरणादायक था। उनकी दर्शनशास्त्र में गहरी रुचि थी,....
Learn MoreSir Hari Singh Gour FRSL (26 November 1870 – 25 December 1949) was a distinguished lawyer....
सरस्वती लक्ष्मी दोनों ने दिया, तुम्हें सादर जय-पत्र।
साक्षी है हरीसिंह ! तुम्हारा ज्ञान दान का अक्षय-सत्र ।।
सर हरि सिंह गौर, जिन्हें प्रचलित नाम हरीसिंह गौर या हरिसिंह गौड़ से भी जाना जाता है, का पूरा नाम हर प्रसाद सिंह गौर था। उनके नाम का उच्चारण 'हेरीसिंह गौर' भी किया जाता है। सम्मानपूर्वक उन्हें 'सर हरीसिंह गौर गौर बब्बा' के नाम से जाना जाता था। उनके पिता का नाम तख्तसिंह गौर और पितामह का नाम ठाकुर मानसिंह गौर, जिन्हें उर्फ भूरासिंह भी कहा जाता था, था। उनके पूर्वज अवध के निवासी थे जो सागर जिले में आकर बस गए थे। सर हरि सिंह गौर का जन्म 26 नवम्बर 1870 को शनीचरी टौरी, सागर, मध्यप्रदेश में हुआ था और उनकी मृत्यु 25 दिसम्बर 1949 को हुई थी।...
© लेखक - ब्रजेश कुमार श्रीवास्तव
मूल रूप से डाक्टर हरिसिंह गौर के परिवार के लोग उत्तरप्रदेश में अवध जिले के निवासी थे जो सागर में आकर बस गये थे। डाक्टर हरीसिंह के जन्म से तीन पीढ़ियां पूर्व के सदस्यों ने सागर शहर को अपना निवास स्थान बना लिया था। यह समय करीब 1861 के आसपास का था। जाति से इनका परिवार क्षत्रियों में भारद्वाज गोत्र के गौर जाति का था जो राजपूतों में सर्वोच्च शाखा मानी जाती है। डाक्टर हरीसिह गौर के पितामह का नाम ठाकुर मानसिंह गौर था। उनको गौर वर्ण के कारण लोग उन्हें भूरासिंह कहने लगे थे। उनके एक ही पुत्र था जिसका नाम तख्तसिंह गौर था। तख्तसिंह गौर के चार पुत्र और दो पुत्रियां थीं। पुत्रों में ओंकारसिंह आधारसिंह, गनपतसिंह और हरीसिंह थे। इन में हरीसिंह सब से छोटे थे। उनके सब से बड़े भाई ओंकारसिंह थे, जो असमय ही मृत्यु को प्राप्त हुए। यही हाल उनके भाई गनपतसिंह का हुआ था। अब केवल दो ही भाई रह गये थे। आधारसिंह और हरीसिंह। आधारसिंह ने अपने जीवनकाल में बहुत उन्नति की। उन्होंने लंदन में कैंब्रिज विश्वविद्यालय के डाऊनिंग कॉलेज में शिक्षा पाई तथा इनर टेम्पिल बार से वकालत की शिक्षा पाई। भारत में वे सिविल जज के पद पर कार्य करते थे। डवलिन विश्वविद्यालय ने उन्हें "ला एण्ड हिस्ट्री ऑफ इनटरेस्ट" नाम शोध प्रबन्ध लिखने पर एल.एल.डी. की उपाधि प्रदान की थी। दुर्भाग्य से उनकी मृत्यु हृदयगति रूक जाने से हुई। इस प्रकार हरीसिंह गौर ही अपने परिवार के एक मात्र सदस्य रह गये थे
डॉ. हरीसिंह गौर का बाल जीवन गरीबी और अभावों में बीता। उनके प्रारंभिक जीवन के साथी गरीबी और अभाव थे, जिन्होंने उन्हें जीवन की तीन महत्वपूर्ण शिक्षाएँ दीं: अपने पैसे का सदुपयोग करना और उसे बचाना, शिक्षा को पैसा प्राप्ति का माध्यम मानते हुए कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करने के लिए स्कॉलरशिप पाने की कोशिश करना, और परीक्षा समय पर और अच्छे अंकों के साथ उत्तीर्ण होना। सागर में उस समय केवल प्राइमरी और मिडिल स्कूल की शिक्षा ही मिलती थी, और हाई स्कूल की शिक्षा के लिए जबलपुर जाना पड़ता था। डॉ. हरीसिंह गौर ने मिडिल स्कूल की परीक्षा सागर से प्रथम श्रेणी में पास की और इसके लिए उन्हें सरकारी स्कॉलरशिप मिली। हाई स्कूल की शिक्षा के लिए जबलपुर जाना पड़ा, पर पिता की मृत्यु के कारण उन्हें जबलपुर छोड़कर नागपुर जाना पड़ा, जहां उन्होंने फ्री चर्च इंस्टीट्यूट (जो आगे चलकर हिसलब कॉलेज के नाम से प्रसिद्ध हुआ) में प्रवेश लिया। इस संस्था से उन्होंने हाई स्कूल परीक्षा में सम्पूर्ण मध्यप्रदेश और बरार प्रांत के विद्यार्थियों में प्रथम स्थान प्राप्त किया, जिसके लिए उन्हें सरकारी स्कॉलरशिप के साथ एक विशेष पुरस्कार भी प्रदान किया गया। 15 वर्ष की आयु में हाई स्कूल की परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करना उनके मेधावी छात्र होने का प्रत्यक्ष प्रमाण है।...
इंगलैंड में शिक्षा
ज्ञान का पिपासु, ज्ञान की खोज में, सागर से सात समुद्र पार कर इंग्लैण्ड में विद्या अध्ययन के लिये पहुंच गया उनकी आन्तरिक और प्रबल इच्छा कि इंगलैंड जाकर अंग्रेजी का अध्ययन कर सकूं, पूरी हुई।
लन्दन में क्रेम्ब्रिज विश्वविद्यालय के अंतर्गत आने वाले डाऊनिंग कालेज में हरीसिंह गोर और मुरलीमनधर ने प्रवेश लेना चाहा। परन्तु हरीसिंह गौर को प्रवेश मिल गया, मुरली मनधर को प्रवेश नहीं मिल सका। इसलिये उसे वहीं के एक ग्रामर स्कूल में प्रवेश लेना पड़ा।
अब हरीसिंह गौर डाऊनिंग कालेज लन्दन के स्नातक स्तर के नियमित छात्र हो गये। इसी कालेज में उनके बड़े भाई आधारसिंह ने भी शिक्षा पाई थी। हरीसिंह गौर यह पहले से ही जानते थे कि जितना पैसा उन्हें भाई से मिलेगा उससे उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो सकेगी।
केम्ब्रिज विश्वविद्यालय की परीक्षाएं मई माह में आरम्भ हो जाती थीं। परीक्षाओं के पश्चात यहां मई सप्ताह मनाया जाता था यह सप्ताह बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता था, यह कहिये कि यह सप्ताह एक त्यौहार के रूप में मनाया जाता था। पूरे सप्ताह कोई न कोई विद्यार्थी
कार्यक्रम होता रहता था जैसे- संगीत, नृत्य, नौका दौड़, क्रिकेट फुटवाल मेंच पिकनिक, वाद-विवाह प्रतियोगिता आदि।
इन कार्यक्रमों में विद्यार्थी अपने माता-पिता, मित्र और अन्य रिश्तेदारों को निमंत्रित किया करते थे। वास्तव में ये कार्यक्रम विद्यार्थियों के लिये आनन्द और उत्साह वर्धक होते थे। इन कार्यक्रमों के पश्चात विश्वविद्यालय का कान्वोकेशन होता था। जिस में स्नातकों को डिग्री प्रदान की जाती थी।
प्रत्येक विद्यार्थी 'हुड और गाऊन' पहनकर उपस्थित होता था तथा कान्वोकेशन के पश्चात इसी परिधान में सब अपनी अपनी फोटो खिचवाते थे। इस प्रकार डिग्री प्राप्त कर विद्यार्थी वास्तविक जीवन के भिन्न भिन्न कार्य क्षेत्र में लग जाते थे। अपने अन्तर में विद्या अध्ययन का वृत लिये
हरीसिंह गौर उपरोक्त कार्यक्रमों का मूल दर्शक होता था। परन्तु ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि हरीसिंह गौर शुष्क विचार वाले विद्यार्थी रहे हों। कवि हृदय हरीसिंह गौर की भावना शून्य या नीरस विद्यार्थी भी तो नहीं समझा जा सकता था स्पष्ट है यहां भावनाओं और इच्छाओं पर
कर्तव्य का जबरदस्त नियंत्रण गौर मस्तिष्क का विशेष गुणा * प्रदर्शित करता है। इस कारण उन्होंने, अपनी इच्छाओं को कभी भी अपनी दिशा से भटकने नहीं दिया। यद्यपि कि उनके शिक्षक ने उन्हें सलाह भी दी कि वे खेलकूद में भाग लें। उनके विद्यार्थी जीवन से यह सिद्ध होता
है कि वे एक लगनशील विद्यार्थी थे। उन्हें परीक्षा के अतिरिक्त और कोई विकल्प स्वीकार नहीं था। परीक्षा के अध्ययन में उन्हें किसी भी प्रकार की ढील स्वीकार नहीं थीं। उनके लिये यह भी नहीं कहा जा सकता कि इस मनोवृत्ति का विद्यार्थी, विद्यार्थी की भीड़ में छिपा हुआ विद्यार्थी हों।
वे बौद्धिक कार्यक्रमों में भाग लेते थे। वादविवाद प्रतियोगिता में वे सदैव प्रथम रहे थे। अपने कालेज में ही नहीं विश्वविद्यालय में भी प्रथम आते थे। इतना ही नहीं, उन्होंने आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालयों के संयुक्त वाद विवाद प्रतियोगिता में कैमिब्ज विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व किया था,
और उस प्रतियोगिता में भी प्रथम रहे थे। इस प्रतियोगिता के संबंध में यह धारणा बनी हुई थी कि इस प्रतियोगिता में भाग लेने वाले विद्यार्थी आगे चलकर या तो प्रधानमंत्री पद तक पहुंचते थे, या बड़े राजनीतिक नेता बनते थे। हरीसिंह गौर का इस उच्च स्तरीय प्रतियोगिता में पहुंचना ही सभी को आश्चर्यचकित करता था।
उन दिनों कला की प्रथम परीक्षा पास करने के लिये यह आवश्यक था कि संस्कृत भाषा अनिवार्य विषय के रूप में चयन की जाय। हरीसिंह गौर को संस्कृत भाषा सीखने की रूचि नहीं थी। वे अपनी इस कमजोरी को अच्छी तरह जानते थे। उनका यह सिद्धांत था कि जिस विषय को वे समझ नहीं पाते थे
उसे वे रट लिया करते थे। परीक्षा में उन्होंने अंग्रेजी और संस्कृत दोनों भाषाओं में सब विद्यार्थियों से अधिक नम्बर प्राप्त किये थे। उनकी दृष्टि में परीक्षा का मूल्य बहुत अधिक था। क्योंकि स्कालरशिप के माध्यम से ही वे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे।
अपनी परीक्षाओं में सदैव प्रथम आने पर भी वे पक्षापात पूर्ण व्यवहार के शिकार हुए थे। केम्ब्रिज विश्वविद्यालय लन्दन माइकल मास सत्र आरम्भ होने के पहले कुछ परीक्षाएं ऐसी होती थी जिनमें पारितोषक पहले से ही घोषित कर दिया जाता था। गणित की परीक्षा में प्रथम आने वाले विद्यार्थी के लिए 50 पौंड का घोषित पुरस्कार था।
हरीसिंह गौर के साथ तीन और अंग्रेज विद्यार्थी थे, जो इस परीक्षा में बैठे थे। परीक्षा परिणाम के पहले, अंग्रेज विद्यार्थियों को यह सूचना मिल चुकी थी कि इस स्कालरशिप का अधिकारी विदेशी छात्र था। परन्तु हरीसिंह गौर को यह सूचना दी गई कि परिणाम के लिये उसे रूकना पड़ेगा। परन्तु जब नोटिस बोर्ड पर जो सूचना दी गई
उसमें कहा गया था कि किसी भी छात्र को सकालरशिप नहीं दी जायेगी। इस सूचना से हरीसिंह गौर बहुत निराश हुए थे। परन्तु वे निरूत्साहित नहीं हुए। इस रहस्य का पता उन्हें उस समय लगा जब उन्हें एल.एल.डी. की उपाधि प्राप्त होने के सम्मान में कालेज द्वारा दिये गये भोज के समय बताया गया कि अधिकारी स्कालरशिप
विदेशी छात्र को देना नहीं चाहते थे...
सन् 1892 में हरीसिंह गौर ला की परीक्षा पास कर चुके थे। उनकी इच्छा थी कि वे बैरिस्ट्री करें परन्तु इस समय भी वे पैसों के अभाव में थे। बैरिस्ट्री आरम्भ करने के लिये उन्हें एक सौ पचास पाँड फीस के रूप में जमा करना आवश्यक था। उनके एक भारतीय मित्र ने उन्हें यह रकम देना चाहा, परन्तु उन्होंने इस विचार से रकम लेना मंजूर नहीं किया, क्योंकि उन्हें इस बात का निश्चय नहीं था कि वे इस रकम को लौटा देने की स्थिति में हो पायेंगे या नहीं। इसलिये उन्होंने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। अब तक के अनुभवों ने उन्हें यह सिखला दिया था कि साहित्यिक होने से प्रसिद्धी और कीर्ति तो मिल सकती है परन्तु पैसा नहीं मिल सकता। लेखक अभावों से ग्रस्त ही रहता है। यह शिक्षा उन्होंने बोहेमियन कहावत से ली थी कि साहित्यिक के द्वार से धन रूपी भेड़िया दूर ही रहता है। अपनी लेखनी से वे वर्ष में पचास पौंड से अधिक कभी नहीं कमा सके थे। उन्होंने इस बात का गहरा अनुभव किया था कि अभावों का जीवन दीनता का जीवन जीना है। दादा भाई नोरोजी ने उन्हें प्रचार का कार्य करने के लिये मासिक वेतन देने का प्रस्ताव रखा था परन्तु उसे भी स्वाभिमानी हरीसिंह गौर ने अस्वीकार कर दिया था। इसलिये उन्होंने इंगलैंड में बैरिस्ट्री करने का विचार ही छोड़ दिया था। दूसरी ओर उन्हें स्वदेश लौटने की इच्छा हुई थी...
विद्यार्थी जीवन समाप्त करने के बाद भी उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार नहीं हो पाया था। उनके पास स्वदेश लौटने के लिये पैसे नहीं थे। आर्थिक अभावों से भरे अपने विद्यार्थी जीवन में भी उन्होंने कुछ बचत की थी, जिसका उपयोग चे पुस्तकें खरीदने में करते थे। इस बचत से उन्होंने अच्छी और चुनी हुं पुस्तकें खरीदी थीं। इस प्रकार उन्होंने करीब 300 पुस्तकों का संग्रह बना लिया था। ज्ञान के इस खजाने का संग्रह किशोर मस्तिष्क के वर्षों की खोज और परिश्रम का फल था। विद्यार्थी जीवन में ज्ञानार्जन के लिये अपनी अल्प बचत से पुस्तकें खरीदना विद्यार्थी जीवन का आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करता हैं। वास्तव में इन पुस्तकों का संग्रह बहुत मूल्यवान रहा होगा। अपनी पसंद, खोज में और कष्ट से बचत किये हुए पैसों से इकट्ठा किया हुआ यह संग्रह हरीसिंह गौर को बहुत प्रिय था। यह कहिये कि प्राणों से भी अधिक प्रिय रहा होगा। यह संग्रह में कुछ तो ऐसे पुस्तकें थीं जो बाजार में उपलब्ध नहीं थीं। कुछ ऐसी र्थी जिनकी छपाई बंद हो गई थीं, और कुछ मंहगी पुस्तकें थीं। यदि इस संग्रह का वास्तविक मूल्यांकन किया जाता तो इसकी कीमत हजारों पौंड की होती। यह इसके संग्रहकर्ता के लिये अमूल्य था। इसी संग्रह के आधार पर उन्होंने ब्रिटेनवासियों को आश्चर्य चकित कर दिया था। उन पर अपनी विद्वता का सिक्का जमा दिया था। इसी संग्रह के आधार पर अपने अकाट्य तकों से वाद-विवाद प्रतियोगिता में तथा विद्वतापूर्ण भाषणों में श्रोताओं से वाहवाही लूटी थी। ब्रिटेन में अपनी विद्वता की गूंज पैदा कर दी थी। इसी प्राण प्यारे पुस्तकों के संग्रह को स्वदेश लौटने के लिये, पैसे जुटाने के लिये थोड़ी सी कीमत पर बेच देने को मजबूर होना पड़ा था। मस्तिष्क और भावना के इस संघर्ष ने हरीसिंह गौर को विचलित कर दिया था। अन्त में विचारों पर भावनाओं की विजय हुई और यह निर्णय पक्का हो गयाकि पुस्तकों की आधी कीमत पर संग्रह को बेच दिया जाये। बहुत दुखित और भारी मन से संग्रह को बेचने का निर्णय लिया गया था। बहुत दुखि मन से प्रत्येक पुस्तकों को देखते और उस पर आधी कीमत लिखते जाते यह कार्य अपने छोटे से जीवन का सबसे कठिनऔर दुखदायी कार्य प्रतीत हुआ था
हरीसिंह गौर अप्रैल 1889 में इंग्लैंड गए। समुद्र यात्रा से उत्साहित थे लेकिन लौटने पर धन की कमी ने निराशा दी। एक धोखेबाज से सामान बेचा लेकिन पैसे नहीं मिले। एक भारतीय व्यापारी की मदद से बंबई लौटे। 31 जुलाई 1892 को बंबई पहुंचे और भाई आधार सिंह के पास होशंगाबाद गए। वहां भाई का व्यवहार बेगाना मिला क्योंकि भतीजे मुरली मनोहर ने उनकी आलोचना की थी। जबलपुर और नौकरी: जबलपुर में मित्रों के पास गए। चीफ़ कमिश्नर एन्थोनी मैक्डोनॉल्ड से मिलकर कार्यवाहक ई.ए.सी. के रूप में भंडारा में नियुक्ति मिली। 26 अक्टूबर 1892 को पदभार ग्रहण किया। उन्होंने तेजी से लंबित प्रकरणों का निपटारा किया। उनकी कार्यक्षमता से डिप्टी कमिश्नर प्रभावित हुए। वकालत की शुरुआत: नौकरी के दौरान एक हत्या के केस में कैदी माधो बंजारा की माँ ने केस लड़ने का अनुरोध किया। डॉ. गौर ने 26 जनवरी 1895 को ई.ए.सी. की नौकरी से इस्तीफा देकर वकालत शुरू की। सेशन जज स्टेनली इस्मे की अदालत में केस लड़ा और हाईकोर्ट में अपील करके केस जीता। इस जीत ने उन्हें प्रसिद्धि दिलाई और वकालत के क्षेत्र में उनकी धाक जमाई। निष्कर्ष: डॉ. हरीसिंह गौर ने कठिन परिस्थितियों में अपने आत्मविश्वास और क्षमता के बल पर सफलता प्राप्त की। उनकी योग्यता और ईमानदारी ने उन्हें उच्च स्थान दिलाया और उनके कार्यों ने उन्हें एक प्रख्यात वकील के रूप में स्थापित किया।
26 जनवरी 1893 का दिन डॉ. हरीसिंह गौर के जीवन का महत्वपूर्ण मोड़ था, जब उन्होंने सरकारी सेवा छोड़कर वकालत का पेशा अपनाया। इस निर्णय का पहला ही केस, माधो बंजारे का, जीतकर उन्होंने वकालत में अपनी पहचान बनाई। भण्डारा में डॉ. गौर टिक्कापारा वार्ड में रहते थे। वहाँ की बार रूम की स्थिति खराब थी, जिसे उन्होंने सुधारकर बार का अध्यक्ष पद संभाला। डिप्टी कमिश्नर लारी से उनकी तनातनी हुई, पर वे अपने निडरता से डी.सी. का स्थानांतरण कराने में सफल हुए। रायपुर में वकालत करते समय, उन्होंने परामर्श शुल्क लेने की नई परंपरा शुरू की। इसका विरोध हुआ, पर उनका पहला महत्वपूर्ण ग्रंथ प्रकाशित होने के बाद यह शांत हुआ। विरोधियों के बावजूद उन्होंने अपने काम से विरोधी ताकतों पर नियंत्रण पाया। डॉ. गौर ने कानून का गहरा अध्ययन किया और अपनी पहली पुस्तक 1895 में 'सम्पत्ति का हस्तान्तरण' लिखी। इस ग्रंथ ने उन्हें अखिल भारतीय स्तर पर प्रसिद्धि दिलाई। उनके पास कलकत्ता, इलाहाबाद और रायपुर से वकालत के प्रस्ताव आने लगे। 1902 में नागपुर आने के बाद उन्होंने नागपुर व सिवनी की अदालतों में कई मुकदमे लड़े। लॉर्ड कर्जन द्वारा विश्वविद्यालय सुधार हेतु गठित समिति में अध्यक्ष के रूप में अपनी सेवाएं दीं। लंदन लौटकर उन्होंने भारतीय प्रेस एक्ट, 1910 के विरुद्ध मुकदमा जीता और 1911 में 'इंडियन पेनेल कोड' प्रकाशित किया, जिससे वे शीर्ष वकील बने। उनकी ख्याति प्रदेश की सीमाओं से बाहर भी फैल गई थी।
हरीसिंह गौर का पहला महत्वपूर्ण ग्रंथ "ला आफ ट्रान्सफर" प्रकाशित हुआ। इस ग्रंथ को उच्च स्तरीय मान्यता मिली और इसे कानून की सबसे जटिल शाखा में सर्वश्रेष्ठ माना गया। इसने पूर्व के सभी ग्रंथों को पीछे छोड़ दिया और बाजार में इसकी मांग बढ़ती रही। सन् 1909 में उनका दूसरा प्रमुख ग्रंथ "भारतीय दंड संहिता" प्रकाशित हुआ। यह दो खंडों में विभाजित था, और इसकी बौद्धिक गहराई और विस्तृत विवरण ने इसे कानूनी जगत में उच्च स्थान दिलाया। इस ग्रंथ की अद्वितीयता ने कानून जगत में हलचल मचा दी और इसे कानून के क्षेत्र में अद्वितीय मान्यता मिली। सन् 1919 में "हिन्दू ला" ग्रंथ प्रकाशित हुआ, जो हिन्दू कानून पर सबसे महत्वपूर्ण और विस्तृत ग्रंथ माना गया। इसने प्राचीन भारतीय कानूनी विचारों को आधुनिक परिवेश में प्रस्तुत किया और अंग्रेज विचारकों की गलत धारणाओं को खंडित किया। इस ग्रंथ ने भारतीय पंडितों और विधायकों को नया मार्गदर्शन दिया और न्याय प्रणाली में सुधार की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इन तीनों ग्रंथों ने हरीसिंह गौर को एक महान कानूनी विद्वान और समाज सुधारक के रूप में स्थापित किया। उनकी लेखनी ने कानून के क्षेत्र में उच्चतम मानदंड स्थापित किए और उनके ग्रंथ विधायकों और न्यायाधीशों के लिए महत्वपूर्ण स्रोत बने। हरीसिंह गौर की लेखनी ने भारतीय न्याय प्रणाली में एक नए युग की शुरुआत की और सामाजिक सुधार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
डॉ. हरीसिंह गौर, एक प्रख्यात वकील, लेखक, और समाजसेवी, अपने जीवन में कई कठिनाइयों का सामना करते हुए भी एक महान लेखक और विद्वान के रूप में ख्यात हुए। उनके रिश्तों में अनेक समस्याएँ थीं; उनकी पत्नी और पुत्र की आदतें और उनके भाई-भतीजों की दुर्व्यवहार ने उन्हें गहरे दुख दिए। यही कारण था कि उन्होंने रिश्तों पर से विश्वास खो दिया और अपने आप को पुस्तकों और ज्ञान में समर्पित कर दिया।
डॉ. हरीसिंह गौर के प्रकाशनों को हम दो भागों में निम्न प्रकार बाँट सकते हैं।डॉ. हरीसिंह गौर ने नागपुर शहर को अपने निवास के लिए चुना था और देशभर में एक प्रतिष्ठित वकील के रूप में ख्याति अर्जित की थी। उन्होंने भारतीय राजनीति में भी अपनी विद्वता और कौशल से महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया। वकील के रूप में सफल होने के बाद, डॉ. गौर को 'लखपतियों' की श्रेणी में गिना जाने लगा। राजनीति में प्रवेश के शुरुआती वर्षों में उन्हें कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इम्पीरियल काउंसिल के चुनाव में वे दो बार असफल हुए, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। 1919 के कानूनी सुधार के बाद, उन्होंने भारतीय कांग्रेस पार्टी की सदस्यता ग्रहण की। विधानसभा में उनके प्रथम भाषण से ही सदस्यों ने उनकी विद्वता और वक्तृत्व कौशल की प्रशंसा की। 1920 में, डॉ. गौर भारतीय विधानसभा के सदस्य बने। उन्होंने विधानसभा में संगठन की कमी को दूर करने के लिए 'पार्लियामेंटरी संघ' की स्थापना की, जो बाद में 'डेमोक्रेटिक पार्टी' के नाम से जानी गई। इस पार्टी के माध्यम से उन्होंने महत्वपूर्ण राजनीतिक मुद्दों पर विचार-विमर्श किया और अपने नेतृत्व में पार्टी को संगठित किया। हालांकि, स्वराज्य पार्टी के उदय से डेमोक्रेटिक पार्टी को कड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ा और अंततः उसका अस्तित्व समाप्त हो गया। स्वराज्य पार्टी का उद्देश्य वैधानिक सुधार करना और सरकार को निष्क्रिय बनाना था। इस पार्टी के सदस्यों की संख्या सबसे अधिक हो गई थी, लेकिन डॉ. गौर ने स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीतकर अपनी लोकप्रियता साबित की। डॉ. हरीसिंह गौर की राजनीतिक यात्रा कठिनाइयों और चुनौतियों से भरी थी, लेकिन उनकी विद्वता और नेतृत्व क्षमता ने उन्हें सदैव एक महत्वपूर्ण व्यक्तित्व बनाए रखा। उनके कार्य और विचार भारतीय राजनीति और समाज के लिए प्रेरणादायक रहे।
डॉ. हरीसिंह गौर एक प्रख्यात विधिवेत्ता, राजनीतिज्ञ, साहित्यविद्, शिक्षा-शास्त्री एवं समाज-सुधारक थे। इसीलिए प्रायः हर क्षेत्र के ख्याति-प्राप्त व्यक्तियों ने डॉ. हरीसिंह गौर के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त किए हैं, इनमें से कुछ निम्नलिखित हैं
डॉ. हरीसिंह गौर के बारे में प्रख्यात विद्वानों के विचार
• भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद (1884-1963)
• भारत के द्वितीय राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन (1888-1975)
• पं. गोविन्दवल्लभ पंत (1887-1961)
• पं. कुञ्जीलाल दुबे (1896-1970)
• हुँमायू कबीर (1906-69)
• मगन भाई देसाई (1889-1969)
• आचार्य शिवपूजन सहाय (1893-1963)
• बाबू वृन्दावन लाल वर्मा (1889-1969)
• प्रो. रामप्रसाद त्रिपाठी
• पं. द्वारका प्रसाद मिश्र (1901-88)
दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) के पहले कुलपति हरि सिंह गौर थे , जो 1922 से 1926 तक इस पद पर रहे:
डॉ. हरीसिंह गौर भारतीय शिक्षा जगत के महान व्यक्तित्व थे, जिन्होंने भारतीय विश्वविद्यालय प्रणाली में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इंग्लैण्ड से भारत लौटने के बाद, उन्होंने पहले सरकारी पद पर कार्य किया और बाद में 26 जनवरी 1893 को वकालत शुरू की, जिसमें सफलता प्राप्त की। डॉ. हरीसिंह गौर की विद्वत्ता का डंका पूरे देश में बजने लगा। 1922 में भारत सरकार ने दिल्ली विश्वविद्यालय की स्थापना की और डॉ. हरीसिंह गौर को इसका संस्थापक उपकुलपति (वाइस चांसलर) नियुक्त किया।
पहली बार चांसलर महोदय द्वारा दिल्ली विश्वविद्यालय की स्थापना में डॉ. गौर की मेहनत की सराहना की गई। वायसराय ने दिल्ली विश्वविद्यालय के निर्माण और उसके सफलतापूर्वक आरंभ होने के लिए डॉ. गौर को बधाई दी। उनके दूसरे कार्यकाल में भी डॉ. गौर ने संस्थान को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और उनकी कार्यशैली की सराहना की गई। इस दौरान डॉ. गौर को दूसरे कार्यकाल के लिए पुनः नियुक्त किया गया, जिससे उनकी नेतृत्व क्षमता और समर्पण का प्रमाण मिलता है।
उनकी मेहनत और शिक्षा के प्रति समर्पण के कारण 1925 में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें नाइटहुड (सर) की उपाधि से सम्मानित किया। इसके बाद वे "सर डॉ. हरीसिंह गौर" के नाम से प्रसिद्ध हुए। डॉ. गौर की विशिष्ट सेवाओं के कारण दिल्ली विश्वविद्यालय का नाम पूरे देश में सम्मानित हुआ। वे 1928 में नागपुर विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर बने और यहां भी उत्कृष्ट कार्य किया।
डॉ. हरीसिंह गौर का सपना था कि सागर में एक विश्वविद्यालय की स्थापना हो, और उन्होंने अपने अथक प्रयासों से 18 जुलाई 1946 में सागर विश्वविद्यालय की स्थापना की। यह उनकी दूरदर्शिता, परिश्रम और शिक्षा के प्रति उनके समर्पण का प्रतीक था। उनके योगदान ने भारतीय शिक्षा जगत में अपार परिवर्तन और प्रगति की राह खोली, जिससे आने वाली पीढ़ियों के लिए शिक्षा के नए द्वार खुले।
डॉ. हरीसिंह गौर का जीवन-दर्शन अत्यधिक व्यावहारिक और प्रेरणादायक था। उनकी दर्शनशास्त्र में गहरी रुचि थी, और उन्होंने न केवल इसे पढ़ा, बल्कि अपने जीवन में भी ढाला। उनका जीवन सादा, ईमानदार और कर्म के प्रति समर्पित था। गरीबी से अमीरी तक के सफर में उनकी वाक्पटुता, मितव्ययिता, और सत्यनिष्ठा के गुण स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं।
सागर विश्वविद्यालय की स्थापना के बाद, डॉ. हरीसिंह गौर ने इसके पहले उपकुलपति के रूप में कार्यभार संभाला। अमीर बनने के बावजूद, उन्होंने भव्यता और अमीरी को नहीं अपनाया। वे सादा जीवन जीते रहे, और महंगे परिधानों की मृगतृष्णा से दूर रहते हुए कुछ ही कपड़ों में अपना जीवन व्यतीत करते थे।
आर.एस. सैनी और कान्ति कुमार जैन ने डॉ. हरीसिंह गौर के सादा जीवन की कुछ विशेष बातें लिखीं हैं। सैनी के अनुसार, डॉ. गौर संकरी पतलून पहनते थे और उनकी जैकेट के कॉलर विशेष तरह के छोटे होते थे। जैन ने लिखा कि उनकी जैकेट की कुहनियों और पैंट के घुटनों पर थिगलियां लगी होती थीं। एक किस्से में, डॉ. गौर ने अपनी इंग्लैंड में रहने वाली बेटी से फोन पर बात करने की इच्छा जताई, लेकिन टेलीफोन सेवा की सीमाओं के कारण यह संभव नहीं हो पाया।
25 दिसम्बर 1949 को, डॉ. हरीसिंह गौर की मृत्यु हो गई। उनके निधन की खबर सागर में एक बड़ा आघात लेकर आई। लाउडस्पीकर के माध्यम से यह सूचना दी गई कि डॉ. गौर का हृदय-गति रुक जाने से स्वर्गवास हो गया है। इसके बाद, सागर नगर में अपार जनसमूह उमड़ पड़ा और लोग गौर भवन की ओर चल पड़े। कान्ति कुमार जैन ने इस दृश्य का वर्णन करते हुए कहा कि गौर साहब का पार्थिव शरीर अत्यंत शान्त और तृप्ति से भरा हुआ था, और उनका जीवन स्वप्न साकार होने के आनंद से उनका चेहरा दमक रहा था।
डॉ. हरीसिंह गौर का जीवन एक प्रेरणा है, जो यह सिखाता है कि सादा जीवन, ईमानदारी, और कर्म के प्रति समर्पण से ही सच्ची सफलता प्राप्त की जा सकती है।
Gour, H. S. (1944). Seven Lives: Autobiography of Dr. Sir H. S. Gour. This autobiography, written by Dr. H. S. Gour himself, provides an intimate insight into his life, starting from 1942 and concluding in January 1944. It highlights his personal journey, struggles, and the philosophy that guided his actions.
Satho, S. A. M. (Year). Dr. Hari Singh Gour Ki Jeevani (Biography of Dr. Hari Singh Gour). Written by S. A. Satho, this biography offers a comprehensive view of Dr. Hari Singh Gour’s life, his contributions to education, and his role as the founding Vice-Chancellor of Sagar University. The book explores his simple yet profound life philosophy.
Srivastava, Brajesh Kumar (1968). Dr. Hari Singh Gour - Eka Preraka Vayaktitva (Dr. Hari Singh Gour - An Inspirational Personality). Brajesh Kumar Srivastava’s book explores Dr. Gour’s life as an inspiring personality. It details his contributions to education and his lasting impact on the academic world in India, particularly his influence on Sagar University.